Rohtash Verma

Add To collaction

लेखनी प्रतियोगिता -20-Feb-2024

समंदर उफन रहा है।

ज़रा देख इस समंदर को
दूर क्षितिज किसी
अजनबी ने...
लिया संग भुकंप को
और फोड़ा ज्वालामुखी,
हां! फिर चक्रांकित हो धरा
गर्म लू बहाने लगी।
चपेट में आये हैं सब
गर्ज-घन रहा है।
ज़रा देख इस समंदर को
उफन रहा है।

पर्वत आपसी आवेश में
तोड़ रहे बारम्बार
दरिया धर विराट रूप
ललकार रही पारावार
झुलस रही है झाड़ियां
घास, वृक्ष समाहार
बैठी किसी छोर पर
झीलों का रूदन रहा है।
ज़रा देख इस समंदर को
उफन रहा है।

भले हैं इनके रिश्ते एक
फिर भी किसी की
लपट में आये हैं।
कोई जंगल फैला रहा है
पतझड़ नया,
सूखे मैदान,मरूधर और
घोर-तमस साये हैं।
नहीं समझते यह कीमत
रिश्ते,खून, आजादी की
सबकी आगोश में बस
नफ़रत ए जश्न रहा है।
ज़रा देख इस समंदर को
उफन रहा है।

रोहताश वर्मा ' मुसाफ़िर '

   15
6 Comments

नंदिता राय

21-Feb-2024 11:53 PM

Nice

Reply

Shnaya

21-Feb-2024 01:07 PM

Nice one

Reply

Mohammed urooj khan

21-Feb-2024 12:23 PM

👌🏾👌🏾👌🏾👌🏾

Reply